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लेख: क्या चीन के साथ सुधरते भारत के रिश्तों को अमेरिका से जोड़कर देखना ठीक?

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लेखक: हर्ष वी पंत

ऐसे समय में, जब भारत और अमेरिका के बीच व्यापार को लेकर तनाव बढ़ता नजर आ रहा है, प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा को काफी अहम माना जा रहा है। वहीं, चीन के विदेश मंत्री वांग यी सोमवार को दो दिवसीय यात्रा पर भारत आ रहे हैं। भारत और चीन के संबंधों में सुधार पिछले वर्ष अक्टूबर में हुए एक समझौते के बाद शुरू हुआ था। उस समझौते ने यह संभावना बनाई कि प्रधानमंत्री मोदी इस महीने के आखिर में होने वाले SCO समिट के लिए चीन जा सकते हैं। ऐसे समय में इस यात्रा के अर्थ जरूर तलाशे जाएंगे।



मतभेद कायम: जब व्यापार वार्ता चल रही थी, उसी बीच प्रधानमंत्री मोदी फरवरी में अमेरिका की यात्रा पर गए थे। लेकिन यह वार्ता अभी रुकी लग रही है। यहां तक कि अमेरिका का ट्रेड डेलिगेशन, जो इस महीने के आखिर में भारत आने वाला था, उसने भी दौरा रद्द कर दिया है। उसकी वजह यह है कि भारत और अमेरिका के बीच कृषि बाजार तक पहुंच (एग्रीकल्चर मार्केट एक्सेस) को लेकर मतभेद हैं।



ट्रंप का फैक्टर: ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा को राजनीतिक दृष्टि से भी देखा जाएगा। इसे भारत की उस कोशिश के रूप में देखा जाएगा कि वह चीन के साथ संबंधों को सामान्य करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है क्योंकि अमेरिका की तरफ से दबाव बन रहा है। डोनाल्ड ट्रंप इसमें एक फैक्टर जरूर हैं, लेकिन भारत और चीन के संबंधों को पूरी तरह अमेरिका से जोड़कर देखना भी वाजिब नहीं होगा।



गलवान के बाद: जब 2020 में गलवान का संकट हुआ था, तब भारत ने स्पष्ट कर दिया था कि चीन के साथ संबंध तभी सामान्य होंगे, जब वह अपनी फौज हटाएगा। साथ ही, बॉर्डर पर मार्च 2019 से पहले की स्थिति बहाल करेगा। भारत ने संकट का जिम्मेदार चीन को ठहराया था और कहा था कि चीन ने सीमा पर यथास्थिति बदली, जिससे गलवान जैसा संकट उत्पन्न हुआ। इसलिए जब तक चीन अपनी गलती स्वीकार नहीं करता और पीछे नहीं हटता, तब तक राजनीतिक और कूटनीतिक संबंध सामान्य नहीं हो सकते।



चीन ने गलती मानी: इसी को देखते हुए पिछले अक्टूबर और उसके बाद भी भारत ने चीन से दूरी बनाए रखी। हालांकि संबंध पूरी तरह खत्म नहीं हुए। संवाद का चैनल खुला रहा और दोनों देशों के बीच व्यापार भी पहले की तरह चलता रहा। पिछले अक्टूबर में जब भारत और चीन इस समझौते पर पहुंचे कि हमें गलवान संकट में अपनी सेनाओं को पीछे हटाना है, तब चीन ने एक तरह से अपनी गलती मानी। चीन की सेना पीछे हटी और उसके बाद भारत ने सामान्यीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। इसके बाद लगातार उच्चस्तरीय संवाद होते रहे और अब प्रधानमंत्री चीन जा रहे हैं।



बदलता रवैया: इससे साफ है कि भारत की चीन नीति किसी और को देखकर नहीं बन रही है, बल्कि इस बात को ध्यान में रखकर बन रही है कि चीन भारत के प्रति अपना रवैया किस तरह बदल रहा है। बॉर्डर मसले पर चीन ने जब गलती स्वीकार की और सेनाएं पीछे हटाईं, तभी डिसइंगेजमेंट की प्रक्रिया शुरू हुई और भारत-चीन संबंधों में सामान्यीकरण शुरू हुआ। लेकिन यह मानना भी गलत होगा कि इससे कोई बहुत बड़ा बदलाव आने वाला है।



तकनीकी समायोजन: यह केवल एक तकनीकी समायोजन है। भारत चाहेगा कि जो व्यापार, दोनों देशों के लोगों के बीच संपर्क और सांस्कृतिक संबंध गलवान के बाद रुक गए थे, उनकी बहाली हो। 2020 के बाद भारत ने बॉर्डर पर इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया है, इसे बढ़ाया और मजबूत किया है और अपनी सैन्य क्षमता में भी इजाफा किया है। भारत ने अन्य देशों के साथ आर्थिक जुड़ाव भी बढ़ाया है। भारत यह नहीं चाहेगा कि चीन के ऊपर आर्थिक या सामरिक निर्भरता बने।



जारी है प्रतिस्पर्धा: यह भी सच है कि चीन का रवैया भले ही बदला हो, लेकिन उसमें भारत के प्रति जो नकारात्मकता और सामरिक प्रतिस्पर्धा है, वह खत्म नहीं हुई है। यही कारण है कि हाल ही में हुई SCO की रक्षा मंत्रियों की बैठक में चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत द्वारा आतंकवाद पर लाए जाने वाले घोषणापत्र को कमजोर करने की कोशिश की। इसी वजह से भारत ने उस संयुक्त घोषणापत्र पर साइन नहीं किए। यइसका मतलब साफ है कि चीन लगातार यह कोशिश करता रहेगा कि वह पाकिस्तान को भारत के सामने खड़ा करे। भारत लगातार यह कोशिश करता रहेगा कि चीन के साथ संबंध सामान्य हों, लेकिन अपनी शर्तों और परिस्थितियों पर।



आमने-सामने: इसलिए अब यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के दौरान क्या कोई नया समझौता होता है या संबंधों को कोई नई दिशा मिलती है या नहीं। मौजूदा सामरिक स्थिति में भारत और चीन दोनों आमने-सामने खड़े दिखाई देंगे, चाहे सीमा क्षेत्र में अस्थायी रूप से सैनिक मौजूद हों। लेकिन इसी बीच उच्चस्तरीय बातचीत और बिजनेस इंगेजमेंट का दौर भी शुरू हो चुका है।

(लेखक लंदन के किंग्स कॉलेज में प्रफेसर हैं)

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