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प्रजातंत्र की विडंबना, बढ़ रही लोकप्रियता, लेकिन लूटने वालों को ही सत्ता के शिखर पर पहुंचा रही है जनता

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हरेक अन्तराष्ट्रीय सर्वेक्षण का परिणाम बताता है कि पूरी दुनिया में प्रजातंत्र की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है, पर विडंबना यह है कि प्रजातंत्र के नाम पर प्रजातंत्र को लूटने वालों को ही जनता सत्ता के शिखर पर पहुंचा रही है। भारत, अमेरिका, हंगरी और तुर्किए इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। दुनिया को प्रजातंत्र का पाठ पढ़ाने वाले यूरोपीय देशों में भी ऐसी ही स्थिति है। पूरी दुनिया में भले ही राजनैतिक दलों की भरमार हो पर इस दौर में केवल दो राजनैतिक विचारधाराएं स्पष्ट हैं- पहली विचारधारा कट्टर दक्षिणपंथी जिनके लिए संविधान, कानून और संवैधानिक संस्थाओं की कोई मान्यता नहीं है और दूसरे वर्ग में शेष सभी विचारधारा हैं।

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में राजनैतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर स्कॉट विलियमसन ने एक साक्षात्कार में कहा है कि कट्टरपंथी सबसे पहले सामाजिक मान्यताओं और संवैधानिक संस्थाओं को पूरी तरह ध्वस्त कर अराजकता पैदा करते हैं। फिर, अराजक समाज में लोकलुभावनवादी नारों और जनता की मांगों को अपने वक्तव्यों में प्रस्तुत कर जनता के चहेते बनकर सत्ता तक पहुंच जाते हैं। इसके बीच कट्टर दक्षिणपंथी नेता मीडिया को लालच देकर अपने पक्ष में कर लेते हैं। ऐसे नेताओं के लोकलुभावनवादी वक्तव्यों और नारों से जनता प्रभावित हो जाती है और फिर सत्ता तक पहुंचना तब बहुत आसान हो जाता है जब समाज में ध्रुवीकरण का जाल बिछाते राजनैतिक दलों और मीडिया में गहरी साठगांठ बन जाती है।

जब किसान आंदोलन कर रहे थे, तब उन्हें दिल्ली में घुसने नहीं दिया गया, पुलिस उन्हें रोकने के लिए लगातार बल प्रयोग करती रही, सड़क और हाईवे को तोड़कर और कीलें बिछाकर उन्हें रोका गया- सत्ता ने उन्हें आतंकवादी और नक्सली करार दिया और अब जब भारत ट्रंप के टैरिफ से चौतरफा घिर गया है तब प्रधानमंत्री जी किसानों, पशुपालकों और मछलीपालकों के हितों के ध्यान की बात कर रहे हैं और मीडिया इन्हीं एक-दो वाक्यों को लगातार बता रहा है। इन्हीं वक्तव्यों में प्रधानमंत्री जी किसानों के हितों की बात करते हुए अपने व्यक्तिगत नुकसान की बात भी कर रहे हैं, जिससे “बेचारा” वाली छवि जनता के बीच बन सके। यही छवि चाय बेचने से लेकर आपातकाल में भूमिगत रहने वाले नैरेटिव से बनती आई है।

कट्टरपंथी विचारधारा में जनता का अस्तित्व केवल वोट देने तक रहता है, उसके बाद उसकी हस्ती मिट जाती है और केवल सत्ता के शीर्ष पर बैठे आकाओं की महात्वाकांक्षाओं से ही देश चलता है। आप जब भी गरीबी, बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था की बात करेंगे- सत्ता सामाजिक ध्रुवीकरण की धार तेज कर देगी और नए नारे गढ़ लेगी। प्रधानमंत्री जी लगातार अर्थव्यवस्था के सुनहरे सपने बेचते हैं, चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की बात करते हैं पर शर्मनाक यह है कि चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश अपने 60 प्रतिशत नागरिकों को मुफ़्त अनाज देकर जिंदा रख रहा है और मीडिया इसे भी उपलब्धि बता रहा है।

अब बड़ी समस्या यह नहीं है कि संविधान विरोधी और ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाले राजनैतिक दल सत्ता में हैं- अब समस्या यह कि जनता ने कुछ भी सोचना और स्थिति का विश्लेषण करना छोड़ दिया है। यह स्थिति कम से कम प्रजातंत्र के लिए भयावह है। हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने समान नागरिक संहिता का समर्थन किया है। क्या उन्हें नहीं मालूम कि देश में बीजेपी से जुड़े नागरिकों और शेष नागरिकों में ही अधिकारों में समानता नहीं है। असमानता की शुरुआत तो बीजेपी और शेष संसद सदस्यों से ही हो जाती है। अब तो शेष संसद सदस्यों को नियंत्रित करने के लिए अर्द्धसैनिक बलों को भी संसद में खड़ा कर दिया गया है।

दक्षिणपंथी ताकतों के उभरने के साथ ही सबसे अधिक प्रभावित मानवाधिकार होता है। कुल 195 देशों में से आधे से अधिक यानि 58 प्रतिशत देश मानवाधिकार से संदर्भ में सबसे खराब श्रेणी में हैं, 23 प्रतिशत देश मध्यम श्रेणी में है और केवल 19 प्रतिशत देश इसका ठीक से पालन कर रहे हैं। मानवाधिकार की स्थिति ऐसी है कि किसी भी द्विपक्षीय या अनेक पक्षीय वार्ताओं में मानवाधिकार का जिक्र तक नहीं किया जाता। इसकी चर्चा अंतरराष्ट्रीय अधिवेशनों तक ही सीमित है, और इन अधिवेशनों में वही राष्ट्राध्यक्ष सबसे तेजी से इसकी वकालत करते हैं जो अपने देशों में मानवाधिकार को लगातार कुचलते हैं।

हमारे प्रधानमंत्री जी मानवता की बात तो कभी-कभी करते हैं पर मानवाधिकार पर खामोश रहते हैं। यहां मानवाधिकार की आवाज उठाने वालों पर बुलडोज़र चलाया जाता है, मीडिया इसका लाइव प्रसारण करता है, सत्ता इसे रामराज्य बताती है और जनता इसपर तालियां बजाती है। अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी हम मानवाधिकार को तार-तार करने वाले देशों इजरायल, रूस, म्यांमार और सऊदी अरब के साथ खड़े रहते हैं।

आश्चर्य यह है कि जनता भी खुश नहीं है, फिर भी कोई राजनैतिक बदलाव नहीं करना चाहती। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी का वेलबीइंग रिसर्च सेंटर, संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट सौल्युशंस नेटवर्क और गैलप के सहयोग से हरेक वर्ष वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट प्रकाशित करता है और हाल में ही प्रकाशित इसके 2025 के संस्करण में मोदी जी का विश्वगुरु विकसित भारत कुल 147 देशों में 118वें स्थान पर है।

वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स पिछले तेरह वर्षों से प्रकाशित किया जा रहा है और भारत इस सूची में लगातार सबसे पिछले देशों के साथ ही खड़ा रहता है। भारत का पिछड़ना इस लिए भी आश्चर्य का विषय है क्योकि यहां प्रचंड बहुमत वाली ऐसी सरकार है जो लगातार जनता की हरेक समस्या सुलझाने का दावा करती रही है। सत्ता के अनुसार उसने पानी, फ्री अनाज, बिजली, कुकिंग गैस और इसी तरह की बुनियादी सुविधाएं हरेक घर में पहुंचा दी है, पर इंडेक्स तो यही बताता है कि दुनिया के सबसे दुखी देशों में हम शामिल हैं। इस इंडेक्स में तो हम पाकिस्तान और लगातार अशांत रहे नेपाल से भी पीछे हैं।

हैप्पीनेस इंडेक्स में देशों के क्रम से स्पष्ट है की जीवंत लोकतंत्र वाले देशों के नागरिक सबसे अधिक खुश हैं, पर हमारे देश में तो लोकतंत्र का जनाजा निकल चुका है। दरअसल वर्ष 2014 के बाद से देश में लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल दी गई है। सत्ताधारी और उनके समर्थक कुछ भी करने को आजाद हैं- वे अफवाह फैला सकते हैं, हिंसा फैला सकते हैं, ह्त्या कर सकते हैं और दंगें भी करा सकते हैं। दूसरी तरफ, सरकारी नीतियों का विरोध करने वाले चुटकियों में देशद्रोही ठहराए जा सकते हैं, जेल में बंद किये जा सकते हैं या फिर मारे जा सकते हैं।

मीडिया, संवैधानिक संस्थाएं और अधिकतर न्यायालय सरकार के विरोध की हर आवाज को कुचलने में व्यस्त हैं। लोकतंत्र की सीढ़ियों पर फिसलने की भारत की आदत पड़ चुकी है, फ्रीडमहाउस के इंडेक्स में भी हमारा देश स्वतंत्र देशों की सूचि से बाहर हो चुका है और आंशिक स्वतंत्र देशों के साथ शामिल हो चुका है। भारत दुनिया का अकेला तथाकथित लोकतंत्र है, जहां अपराधी, आतंकवादी, प्रशासन, सरकार, मीडिया और पुलिस का चेहरा एक ही हो गया है। अब किसी के चहरे पर नकाब नहीं है और यह पता करना कठिन है कि इनमें से सबसे दुर्दांत या खतरनाक कौन है।

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