सुप्रीम कोर्ट ने एक दशक पुराने हत्या के मामले में सोमवार को एक बड़ा फैसला सुनाते हुए तीन लोगों को बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि किसी भी आपराधिक मामले में सिर्फ संदेह के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती, भले ही वह संदेह कितना भी गहरा क्यों न हो। पीठ ने स्पष्ट किया कि दोषसिद्धि के लिए ठोस और भरोसेमंद सबूत आवश्यक हैं, न कि केवल अनुमान या संदेह।
समाचार एजेंसी भाषा के अनुसार, यह मामला 2007 में उत्तराखंड के किशनपुर में 10 वर्षीय एक बच्चे की हत्या से जुड़ा है। पीड़ित बच्चा अपने परिवार के आम के बाग की रखवाली करने गया था, लेकिन जब वह देर शाम तक घर नहीं लौटा, तो अगले दिन उसका शव पास के एक गड्ढे में मिला। उसके पिता ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई और गांव के छह लोगों पर संदेह जताया, जिनसे परिवार की पुरानी रंजिश थी।
ट्रायल कोर्ट ने पांच में से तीन आरोपियों को दोषी ठहराया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई थी, जबकि बाकी दो को बरी कर दिया गया था। इस सजा को बाद में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने भी बरकरार रखा था। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलटते हुए कहा है कि अभियोजन पक्ष अपने आरोप साबित करने में पूरी तरह विफल रहा है।
न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि सिर्फ संदिग्ध गवाहियों के आधार पर दोष तय करना न्यायिक सिद्धांतों के खिलाफ है। अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि वैज्ञानिक परीक्षणों को नजरअंदाज करते हुए दी गई सजा, न्याय के मूल सिद्धांतों पर सवाल खड़े करती है।
पीठ ने दोहराया कि सुप्रीम कोर्ट बार-बार इस बात को स्पष्ट कर चुका है कि संदेह, चाहे वह कितना भी मजबूत क्यों न हो, सबूत का स्थान नहीं ले सकता। ऐसे में जब पुख्ता साक्ष्य नहीं हैं, तो अभियुक्तों को संदेह का लाभ मिलना चाहिए। अदालत ने तीनों की अपील स्वीकार करते हुए उनकी सजा को रद्द कर दिया और उन्हें बरी कर दिया।
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