बिहार चुनावों पर एक स्वतंत्र रिपोर्ट ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स और चुनावी पारदर्शिता पर कुछ सवाल उठाए हैं.
दो ग़ैर संगठनों डेमोक्रेटिक चरखा और नेशनल एलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट की बिहार शाखा की तरफ़ से जारी की गईइस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान कई उम्मीदवारों ने अपने फ़ेसबुक अकाउंट से कमाई जारी रखी. साथ ही इसकी जानकारी भी सार्वजनिक नहीं की.
इसके अलावा रिपोर्ट में कहा गया है कि राजनीतिक पार्टियों ने "शैडो नेटवर्क्स" के ज़रिए करोड़ों के विज्ञापन चलाए जिनका कोई लेखा-जोखा चुनाव आयोग के पास नहीं है.
फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम की मूल कंपनी मेटा और भारत के चुनाव आयोग के नियम इस तरह की गतिविधियों पर रोक लगाते हैं.
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बीबीसी न्यूज़ हिंदी ने मेटा की पब्लिक पॉलिसी टीम और बिहार चुनाव आयोग से इस रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया मांगी है. बिहार चुनाव आयोग के मीडिया प्रभारी कर्नल कपिल ने कहा है, "हम आपके सवालों का उचित समय पर जवाब देंगे."
वहीं इस रिपोर्ट के प्रकाशन के समय तक दोनों की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया है.
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"इन्फ्लुएंसर मॉनेटाइज़ेशन – लॉक्ड: फ्रॉम रील्स टू रेवेन्यू, फ्रॉम व्यूज टू वोट्स" शीर्षक वाली यह रिपोर्ट नागरिक संगठनों डेमोक्रेटिक चरखा और नेशनल एलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट की बिहार शाखा ने शनिवार देर रात जारी की है.
इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पहले चरण में दावेदारी पेश करने वाले कुल 16 प्रतिशत उम्मीदवारों के सोशल मीडिया अकाउंट मोनेटाइज़्ड यानी कमाई करने में सक्षम थे.
इस रिपोर्ट में 76 फ़ेसबुक अकाउंट की गहन पड़ताल की गई. इनमें से 90 फ़ीसदी उम्मीदवारों ने अपने हलफ़नामों में इस आय का कोई ज़िक्र नहीं किया है.
रिपोर्ट कहती है, "मेटा अपने ही नियमों का उल्लंघन कर रहा है. चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के अकाउंट्स को डिमॉनेटाइज़ किया जाना चाहिए ताकि प्लेटफॉर्म किसी भी उम्मीदवार को आर्थिक लाभ न पहुंचाए."
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इस रिपोर्ट में सोशल मीडिया पर सक्रिय उम्मीदवारों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है:
रिपोर्ट का दावा है कि जितना ये उम्मीदवार चुनाव प्रचार के दौरान ख़र्च कर रहे हैं, शायद उतना या उससे अधिक अपने सोशल मीडिया से कमा रहे हैं. लेकिन अपने इस दावे के पक्ष में रिपोर्ट में कमाई के आंकड़े नहीं दिए गए हैं क्योंकि ये सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं.
इस रिपोर्ट में ये सवाल भी उठाया गया है कि पहले से सार्वजनिक पदों पर बैठे उम्मीदवार रील्स और वीडियो बनाने के लिए सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं.
Getty Images रिपोर्ट के मुताबिक़, बिहार बीजेपी ने फ़ेसबुक विज्ञापनों पर 5.6 करोड़ रुपये ख़र्च किए 'शैडो विज्ञापन': आधिकारिक ख़र्च से कहीं ज़्यादा अघोषित प्रचार? चुनाव के दौरान सोशल मीडिया प्रचार और लोगों तक पहुंचने का अहम ज़रिया बना है. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी ने सोशल मीडिया के ज़रिए चुनाव प्रचार पर सर्वाधिक ख़र्च किया है.
इन्हीं संगठनों की 'शैडो ऐड्स' रिपोर्ट में बताया गया है कि बिहार चुनावों में फ़ेसबुक पर कुल आधिकारिक राजनीतिक विज्ञापन खर्च 7.8 करोड़ रुपये था.
हालांकि, इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 2.9 करोड़ रुपये का "अघोषित या अनाधिकारिक ऐड स्पेंड" भी सामने आया है, जिसका कोई ब्योरा चुनाव आयोग को नहीं दिया गया.
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रिपोर्ट के मुताबिक़, बिहार बीजेपी ने फ़ेसबुक विज्ञापनों पर 5.6 करोड़ रुपये ख़र्च किए. वहीं जन सुराज पार्टी ने 1.4 करोड़ रुपये, जबकि आरजेडी 8.7 लाख रुपये और जेडीयू ने 17.8 लाख रुपये ख़र्च किए.
रिपोर्ट कहती है कि 'शैडो यूनिवर्स' (अघोषित नेटवर्क) के ज़रिए अतिरिक्त 3 करोड़ रुपये तक का प्रचार किया गया. रिपोर्ट में कहा गया है कि राजनीतिक दलों ने ऐसे अकाउंट या पेज के ज़रिए चुनाव प्रचार किया जिनका सीधा संबंध राजनीतिक दलों से नहीं है.
रिपोर्ट में यह दावा भी किया गया है कि कई सोशल मीडिया पेज, जो न्यूज़ पेज होने का दावा करते हैं, उन पर पार्टियों के समर्थन या विरोध में राजनीतिक प्रचार जैसी सामग्री चलाई जा रही थी.
रिपोर्ट में कहा गया है, "मेटा न केवल विज्ञापन नीतियों का पालन करने में विफल रहा है, बल्कि उसने शैडो पेजों को बढ़ावा दिया है जो नफ़रत भरी सामग्री के लिए बेहतर पहुंच प्राप्त कर रहे हैं."
बीबीसी न्यूज़ हिंदी ने इस रिपोर्ट के आधार पर मेटा इंडिया की पब्लिक पॉलिसी टीम और बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को ईमेल पर सवाल भेजे हैं और कई अहम बिंदुओं पर जवाब मांगा है.
मेटा से पूछे गए सवाल:
- मेटा कैसे सुनिश्चित करता है कि जब कोई व्यक्ति चुनावी उम्मीदवार बनता है, तो उसका मॉनेटाइज़ेशन अपने आप निलंबित हो जाए?
- क्या 2025 बिहार चुनाव के दौरान मेटा ने किसी उम्मीदवार के अकाउंट का मॉनेटाइज़ेशन रोका या समीक्षा की?
- क्या मेटा उन उम्मीदवारों की आय वापस ले रहा है जिन्होंने प्रतिबंधित अवधि में कमाई की है?
- क्या मेटा ऐसे अकाउंट्स और उनकी आय की सार्वजनिक सूची जारी करने को तैयार है?
- "ब्रांडेड कंटेंट" या छिपे हुए राजनीतिक विज्ञापनों की निगरानी कैसे की जाती है?
बिहार चुनाव आयोग से पूछे गए सवाल:
- चुनाव आयोग उम्मीदवारों की सोशल मीडिया आय और मॉनेटाइज़ेशन पर निगरानी कैसे रखता है?
- क्या किसी भी उम्मीदवार के ख़िलाफ़ ऐसी जांच हुई है जिन्होंने सोशल मीडिया से आय अर्जित की?
- क्या आयोग भविष्य में सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स के साथ सहयोग बढ़ाने की योजना बना रहा है ताकि चुनावी पारदर्शिता मज़बूत हो?
इस रिपोर्ट में चुनाव आयोग और मेटा से कई सिफ़ारिशें भी की गई हैं.
रिपोर्ट में मांग की गई है कि चुनावी हलफ़नामे में सोशल मीडिया पेज का यूनिक आईडी और यूआरएल देना अनिवार्य किया जाए.
मेटा और चुनाव आयोग के बीच पैन आधारित डेटा साझा प्रणाली विकसित की जाए ताकि पारदर्शिता को बढ़ावा दिया जा सके. साथ ही चुनावी अवधि में सभी उम्मीदवारों के अकाउंट्स अस्थायी रूप से डिमॉनेटाइज़ किए जाएं.
रिपोर्ट में यह मांग भी की गई है कि वर्तमान पदाधिकारियों को सोशल मीडिया से अर्जित आय चुनाव आयोग की निगरानी में लौटानी चाहिए.
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डेमोक्रेटिक चरखा के सह-संपादक और इस रिपोर्ट के शोधकर्ता आमिर अब्बास कहते हैं कि उम्मीदवारों के हलफ़नामों में सोशल मीडिया अकाउंट की जानकारी नहीं दी जा रही है जिसकी वजह से जांच का दायरा सीमित रहा.
आमिर अब्बास कहते हैं, "इस स्टडी में 20 दिनों का समय लगा क्योंकि कई उम्मीदवारों के कई अकाउंट्स, उनके समर्थकों के अकाउंट्स मौजूद हैं. इसमें सही अकाउंट खोजना भी मुश्किल काम है. 76 अकाउंट्स की जांच की गई, सभी फ़ेसबुक द्वारा प्रमाणित 'ब्लू टिक' वाले हैं."
आमिर कहते हैं, "उम्मीद है कि इस स्टडी के बाद निर्वाचन आयोग इसे रोकने के लिए कोई ठोस क़दम उठाएगा."
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि रिपोर्ट में किए गए दावे समानता और पारदर्शिता दोनों के लिए चुनौती हैं. साल 2019 में फ़ेसबुक और चुनावों के बीच संबंध पर किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं कि यह स्थिति पारदर्शिता की कमी की वजह से है.
ठाकुरता कहते हैं, "फेसबुक और चुनाव आयोग चाहें तो इस तरह की गतिविधियों पर तुरंत लगाम लगा सकते हैं. यहां सिर्फ निगरानी ही नहीं बल्कि इच्छाशक्ति की कमी भी साफ़ नज़र आती है. फेसबुक भारत के चुनावी मामलों को बहुत गंभीरता से नहीं लेता है. अन्यथा यह गतिविधियां रोकना कोई बड़ा काम नहीं है."
नेशनल एलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम) के सदस्य रंजीत पासवान कहते हैं, "चुनाव आयोग प्रत्याशियों की कमाई और खर्च का हिसाब रखता है पर सोशल मीडिया के ज़रिए हो रही कमाई और किए जा रहे प्रचार-प्रसार पर कोई ख़ास निगरानी नहीं रखी जा रही है जो चिंताजनक है."
"फ़ेसबुक चलाने वाली मेटा अपने ही नियमों को ताक पर रखकर प्रत्याशियों को कमाई करने दे रही है जिसका कोई हिसाब जनता या चुनाव आयोग के पास नहीं है. इस स्थिति में जवाबदेही तय होनी चाहिए."
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फेसबुक और इंस्टाग्राम की पेरेंट कंपनी मेटा की आधिकारिक नीतियों में चुनावी उम्मीदवारों के सोशल मीडिया पर मॉनेटाइज़ेशन (कमाई) और चुनावी विज्ञापनों, खासकर "शैडो विज्ञापनों" पर सख्त नियम हैं.
मेटा की पार्टनर मोनेटाइज़ेशन पॉलिसीज़ में स्पष्ट है कि वर्तमान चुने हुए या नामांकित उम्मीदवारों को मॉनेटाइज़ेशन सेवाओं (जैसे फेसबुक स्टार्स या सब्सक्राइबर्स हब) का उपयोग करने की अनुमति नहीं है. इसका मक़सद राजनीतिक उम्मीदवारों को प्लेटफ़ॉर्म के आर्थिक लाभ लेने से रोकना है.
चुनावी विज्ञापनों या शैडो विज्ञापनों को लेकर भी मेटा ने नीति बनाई हुई है. चुनावी विज्ञापन के साथ मेटा को "पेड बाइ फ़ॉर" डिस्क्लेमर नीति लागू करनी होती है. इसके तहत चुनाव, राजनीतिक या सामाजिक मुद्दों से संबंधित सभी विज्ञापनों में विज्ञापनदाता का नाम स्पष्ट दिखाना अनिवार्य है.
मेटा पर किसी भी तरह के चुनावी विज्ञापन देने से पहले विज्ञापनदाता को ऑथराइज़ेशन प्रक्रिया से भी गुज़रना होता है. इसका मक़सद विज्ञापनदाता की पहचान और स्रोत की पारदर्शिता सुनिश्चित करना है.
"शैडो विज्ञापन" यानी अप्रकाशित या अघोषित विज्ञापन मेटा की घोषित नीतियों के ख़िलाफ़ हैं.
मेटा का यह भी कहना रहा है कि वह संबंधित सरकारी एजेंसियों के साथ सहयोग करता है ताकि चुनावी विज्ञापनों की वैधानिकता सुनिश्चित की जा सके और फ़र्ज़ी या अनुचित प्रचार को रोका जा सके.
Getty Images चुनाव आयोग ने एआई आधारित या डीपफेक सामग्री के दुरुपयोग को लेकर भी क़ानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी है क्या हैं चुनाव आयोग के नियम भारत के निर्वाचन आयोग ने चुनावों के दौरान सोशल मीडिया पर उम्मीदवारों के मॉनेटाइज़ेशन और "शैडो विज्ञापन" से जुड़े कई नियम जारी किए हैं. इनका पालन अनिवार्य है.
निर्वाचन आयोग के आदेश के मुताबिक सभी राष्ट्रीय और राज्य राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर आने वाले सभी राजनीतिक विज्ञापनों की मीडिया सर्टिफिकेशन और मॉनिटरिंग कमिटी (एमसीएमसी) से पूर्व-पुष्टि यानी प्री-सर्टिफिकेशन प्राप्त करना अनिवार्य है.
बिना मीडिया सर्टिफिकेशन और मॉनिटरिंग कमिटी की मंज़ूरी के कोई भी चुनावी प्रचार सामग्री या विज्ञापन जारी नहीं हो सकता है.
साथ ही, सभी उम्मीदवारों को अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स के सही और प्रामाणिक हैंडल्स (यूज़र नेम) नामांकन पत्र भरते समय घोषित करना होता है. इससे चुनाव आयोग असली या नकली अकाउंट और छद्म अकाउंट में अंतर कर सके.
यही नहीं, चुनाव ख़र्च विवरण में उम्मीदवारों को ऑनलाइन प्रचार, विज्ञापन ख़र्च, सोशल मीडिया सामग्री निर्माण और अकाउंट संचालन पर हुए सभी ख़र्चों का पूरा लेखा-जोखा देना अनिवार्य है. इसे लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश भी हैं.
साथ ही लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 77(1) के तहत भी यह अनिवार्य है.
चुनाव आयोग ने एआई आधारित या डीपफेक सामग्री के दुरुपयोग को लेकर भी तैयारी की है और कानूनी कार्रवाई की चेतावनी भी दी है.
यानी निर्वाचन आयोग की नीतियां और आदेश न तो उम्मीदवारों को कंटेंट मॉनेटाइजेशन की अनुमति देते हैं और न ही शैडो विज्ञापन की.
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मेटा ने अन्य देशों के लोकतांत्रिक चुनावों के दौरान कई तरह की सख़्त नीतियां लागू की हैं.
उदाहरण के लिए यूरोप की "ट्रांसपेरेंसी एंड टार्गेटिंग ऑफ पॉलिटिकल एडवर्टाइजिंग रेगुलेशन, 2025" की वजह से मेटा ने यूरोपीय संघ में अक्तूबर 2025 से राजनीतिक, चुनावी और सामाजिक मुद्दों के विज्ञापनों को पूरी तरह बंद करने की घोषणा की है.
यूरोपीय संघ के नियमों की वजह से विज्ञापन चलाने को लेकर क़ानूनी जटिलताएं हैं.
यही नहीं, चुनावी उम्मीदवार या राजनीतिक पार्टियों के सोशल मीडिया अकाउंट्स की मॉनेटाइज़ेशन (जैसे लाइव स्ट्रीमिंग से कमाई, ब्रांडेड कंटेंट) पर रोक लगाई जाती है. ऐसा उम्मीदवार को सोशल प्लेटफॉर्म से अनुचित आर्थिक लाभ लेने से रोकने के लिए किया जाता है.
वहीं अमेरिका और कई अन्य देशों में मेटा सोशल मीडिया के चुनावी हस्तक्षेप को रोकने के लिए विशेष संसाधन और निगरानी तंत्र स्थापित करता है. साथ ही अपने प्लेटफॉर्म के चुनावी दुरुपयोग की जांच करता है और सरकारों तथा चुनाव आयोगों के साथ सहयोग करता है.
हालांकि, भारत को लेकर इससे पहले भी मेटा की नीतियों पर सवाल उठते रहे हैं.
2024 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान भी मेटा के प्लेटफॉर्म पर 'ज़हरीले प्रचार' को लेकर सवाल उठा था.
तब एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि मेटा ने अपने नियमों को गुप्त रखा है और राजनीतिक दलों को चुनाव से जुड़े कानूनों को तोड़ने की आज़ादी दी है.
तब बीबीसी ने मेटा के सामने नियमों के उल्लंघन का सवाल रखा था. मेटा ने उस समय अपने जवाब में कहा था, "हम नियमों का उल्लंघन करने वाले विज्ञापनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर रहे हैं."
मेटा ने बीबीसी को दिए अपने बयान में कहा था, "हम उन विज्ञापनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करते हैं जो हमारे नियमों का उल्लंघन करते हैं. हमने पहले भी इस तरह की कार्रवाई की है और करेंगे. अगर कोई इस तरह से नियमों का उल्लंघन करना जारी रखता है, तो उसे दंडात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है."
"अगर कोई हमारे प्लेटफ़ॉर्म पर राजनीतिक अभियान चलाना चाहता है, तो उन्हें पहले हमारी अनुमति लेनी होगी. साथ ही विज्ञापनदाताओं को राजनीतिक प्रचार पर लागू सभी कानूनों का पालन करना आवश्यक है. हमने उन विज्ञापनों को हटा दिया है जो हमारी नीतियों का उल्लंघन करते हैं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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