राजस्थान हाईकोर्ट की जोधपुर बेंच ने अनुकंपा नियुक्ति से जुड़े एक असामान्य और ऐतिहासिक मामले में बड़ा फैसला सुनाया है। न्यायमूर्ति फरजंद अली ने अपने रिपोर्टेबल जजमेंट में अजमेर डिस्कॉम को आदेश दिया है कि वह अलवर जिले के खेरली निवासी भगवानसिंह की बहू शशि कुमारी को अनुकंपा नियुक्ति का लाभ देते हुए वेतन भुगतान करे।
यह फैसला इसलिए विशेष माना जा रहा है क्योंकि सामान्यतया अनुकंपा नियुक्ति का अधिकार केवल मृत कर्मचारी के जीवनसाथी या अवयस्क बच्चों को दिया जाता है। लेकिन इस मामले में अदालत ने मानवीय आधार और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए दिवंगत कर्मचारी की बहू को यह अधिकार प्रदान किया है।
मामले की पृष्ठभूमि
 खेरली निवासी भगवानसिंह, जो अजमेर डिस्कॉम में कार्यरत थे, उनके निधन के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर हो गई थी। उनके पुत्र की भी असमय मृत्यु हो गई, जिसके बाद परिवार की जिम्मेदारी उनकी बहू शशि कुमारी पर आ गई। शशि कुमारी ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन किया था, लेकिन विभाग ने यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि नीति के अनुसार “बहू” को यह पात्रता प्राप्त नहीं है।
शशि कुमारी ने इस निर्णय के खिलाफ राजस्थान हाईकोर्ट में याचिका दायर की। सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति फरजंद अली ने कहा कि “अनुकंपा नियुक्ति का उद्देश्य परिवार को आर्थिक सहयोग देना है, न कि केवल नीतिगत सीमाओं में बांधना। जब बहू परिवार की जिम्मेदारी संभाल रही है और कोई अन्य आश्रित नहीं है, तो उसे इस सुविधा से वंचित रखना अन्याय होगा।”
कोर्ट का फैसला और निर्देश
 हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि राज्य सरकार और सार्वजनिक उपक्रमों को अनुकंपा नियुक्ति की नीतियों में सामाजिक वास्तविकताओं के अनुसार लचीलापन रखना चाहिए। न्यायमूर्ति अली ने टिप्पणी की कि “कानून का उद्देश्य मानवता की रक्षा करना है, और यदि कोई महिला अपने दिवंगत ससुर के परिवार की जिम्मेदारी निभा रही है, तो उसे रोजगार का अवसर मिलना चाहिए।”
अदालत ने अजमेर डिस्कॉम को निर्देश दिया कि शशि कुमारी की नियुक्ति को वैध मानते हुए उसे लंबित वेतन का भुगतान किया जाए और आगे उसे नियमित सेवा लाभ दिए जाएं।
फैसले का महत्व
 कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह फैसला भविष्य में अनुकंपा नियुक्ति के दायरे को व्यापक करने की दिशा में एक मिसाल बनेगा। यह निर्णय उन मामलों में राहत देगा, जहां परिवार का एकमात्र सहारा बहू या अन्य परिजन हों जो वर्तमान नियमों के तहत पात्र नहीं माने जाते।
अदालत के इस फैसले का समाज के विभिन्न वर्गों ने स्वागत किया है। इसे “मानवीय दृष्टिकोण से दिया गया न्यायसंगत निर्णय” बताया जा रहा है, जो न केवल विधिक व्याख्या बल्कि सहानुभूति और संवेदनशीलता का उदाहरण भी है।
कुल मिलाकर, राजस्थान हाईकोर्ट का यह निर्णय न केवल एक परिवार को नई आशा दे रहा है, बल्कि प्रशासनिक नीतियों में मानवता के तत्व को प्रमुखता देने का संदेश भी दे रहा है।
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